Thursday, February 16, 2012

Ek Baat ..

 उलझी उलझी सी क्यों रहती हो आजकल


 इन लटों को सुलझाओ तो कोई बात कहूं 




बुनती रहती  हो जो ख्यालो के जाल दिनभर


उन सपनो से बाहर  आओ तो बात कहूं




कुरेदती हो छुपे दबे ज़ख्मो को अक्सर


उन पर मिटटी  डाल पाओ तो बात कहूं




जो अमीट सी आग जलाए रहती हो भीतर


संतोष की शीत से बुझाओ तो बात कहूं




खुशिया खोजते गुज़र जाती है ज़िन्दगी कई


ख़ुशी मैं भी तू खुश न रह पाए तो क्या बात कहूं